वक्कलि भिक्षु
राजा गौतम बुद्ध के ज़माने में एक वक्कलि नामक भिक्षु हुवा करता था एक दिन वह भिक्षु भगवान् बुद्ध के सूंदर तेजस्वी शरीर से और प्रभावशाली ओजस्वी व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ की न समाधी द्वारा चित्त एकाग्रता का कोई अभ्यास करे और ना ही विपश्यना द्वारा प्रज्ञा जाग्रत करने का कोई प्रयास करता था ।
एक तक जब देखो तब भगवान् गौतम बुद्ध के के प्रभामंडित चेहरे को देखता रहता था ।
करुणामय भगवान् गौतम बुद्ध ने उसे फटकारते हुए कहा, " अरे नादान भिक्षु !
मेरे इस शरीर को पागलो की तरह क्या देख रहा है? मेरी इस रूप- काया में क्या रखा है? यह भीतर से उतनी ही गन्दी है, जितनी की किसी भी अन्य की काया। रूप का दर्शन मूर्खो को आनंदित करने वाला होता है। यदि मुझे देखना है तो मेरे भीतर समाये हुए धर्म को देख।
जो धर्म को देखता है, वही मेरे सच्चे स्वरुप को देख पाता है।"और वही मेरा असली रूप और असली काया है।
वकक्ली भिक्षु के प्रज्ञा चक्षु खुल गए। उसे भगवान् की बात समझ में आई की वस्तुतः वे धर्म के ही मूर्त स्वरुप हैं। उनके दर्शन में सत्यधर्म का दर्शन होना ही चाहिये, और यह निर्वाण धर्म तो अंतर्मुखी होकर स्वयं अपने ही भीतर देखने के लिए है, बाहर नही।इसीलिए भगवान भगवन गौतम बुद्ध हमेशा कहते है ,ऊपर न देखो ,इन्सान के अन्दर को देखो.चाहे समय लगेगा ?
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