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NERUL WEST, MAHARASHTRA, India
Special educator in CWHI

Sunday, July 28, 2024

पुस्तक वाचन : ज्ञान की महत्वपूर्णता

 पुस्तक वाचन : ज्ञान की महत्वपूर्णता







जब हम पुस्तकों के साथ समय बिताते हैं, तो हम न केवल ज्ञान प्राप्त करते हैं, बल्कि अपनी सोच और दृष्टिकोण को भी समृद्ध करते हैं। यह समय कभी भी व्यर्थ नहीं जाता।

पुस्तकें हमें नई दिशाओं का परिचय देती हैं, हमारी समस्याओं के समाधान के लिए नए तरीके सिखाती हैं, और हमारे अंतर्मन को शांति और समृद्धि की दिशा में ले जाती हैं। एक पुस्तक न केवल जानकारी का एक स्रोत होती है, बल्कि वह हमें नई शिक्षाएँ और अनुभव भी प्रदान करती है।

ज्ञान की महत्वपूर्णता

पुस्तकें हमें असीमित ज्ञान की खान प्रदान करती हैं। जब हम एक पुस्तक पढ़ते हैं, तो हम उसके लेखक के सोचने का तरीका समझते हैं। वे हमें अपने अनुभवों से शिक्षा देते हैं और हमें उन विचारों से परिचित कराते हैं जो हमारे लिए नये और प्रेरणादायक हो सकते हैं। एक अच्छी पुस्तक हमें न केवल एक विषय के बारे में जानकारी देती है, बल्कि हमें उस विषय के अन्य दिमागी और दार्शनिक पहलुओं से भी परिचित कराती है।

विचारों का समृद्धांत

पुस्तकों के माध्यम से हम नए और सर्वोत्तम समृद्धांत प्राप्त कर सकते हैं। जब हम विभिन्न लेखकों की विचारधाराओं से परिचित होते हैं, तो हमारे विचारों का समृद्धांत और विश्वास भी समृद्ध होता है। पुस्तकें हमें एक से बढ़कर एक नए सिद्धांतों के साथ परिचित कराती हैं और हमें विभिन्न पहलुओं से देखने की क्षमता प्रदान करती हैं। इस प्रकार, वे हमारे व्यक्तित्व के समृद्ध और समृद्धांकन में मदद करती हैं।

आत्म-प्रेरणा और स्वास्थ्य

एक अच्छी पुस्तक न केवल हमारी सोच और विचारों को परिवर्तित करती है, बल्कि वह हमें आत्म-प्रेरणा भी प्रदान करती है। अध्ययन करते समय हम अपनी समस्याओं के लिए नए समाधान खोज सकते हैं और अपने जीवन को सकारात्मक दिशा में मोड़ सकते हैं। स्वास्थ्य के लिए भी पुस्तकें अत्यधिक महत्वपूर्ण होती हैं, क्योंकि वे हमें माइंडफुलनेस और स्ट्रेस मैनेजमेंट के लिए उपाय देती हैं।

व्यक्तिगत विकास बंडल - आपके लिए विशेष

अब आपको समझ में आ रहा होगा कि पुस्तकें हमारे लिए कितनी महत्वपूर्ण हो सकती हैं। इसी दृष्टिकोण से हमारी 'व्यक्तिगत विकास बंडल' आपके लिए विशेष रूप से तैयार की गई है। इस बंडल में आपको एक साथ चार प्रेरणादायक पुस्तकें मिलेंगी, जो आपके व्यक्तित्व और प्रोफेशनल जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने में मदद करेंगी। ये पुस्तकें आपको नए विचारों, अनुभवों, और यथार्थ के नजरिए से देखने की क्षमता प्रदान करेंगी, जिससे आप अपने लक्ष्यों की दिशा में और भी सशक्त महसूस करेंगे।

इस प्रकार, पुस्तकें हमारे जीवन के एक महत्वपूर्ण हिस्से होती हैं और उनका समय कभी भी व्यर्थ नहीं जाता। इसलिए, अगर आप अपने व्यक्तित्व को सुधारना और अपने सपनों को पूरा करना चाहते हैं, तो पुस्तकें आपकी सहायता कर सकती हैं। आज ही 'व्यक्तिगत विकास बंडल' खरीदें और अपने जीवन को सकारात्मक बदलाव दें!

धन्यवाद



अपील : मी प्रा. बी आर शिंदे ,(विशेष शिक्षा कर्णबधिर विभाग ,भारत सरकार ) सध्या सामाजिक कार्यासाठी लेखन स्वरूपात  स्वत:ला  समर्पित केले आहे . पूर्वी कर्णबधिर  सरकारी क्षेत्रात  कार्यरत होतो . तिथे पण मी ३१ वर्ष सेवा केली आहे . शेवटी आपले घर आपला  समाज ,हयाचे ऋण देणे असते , ते मी करीत आहे .आपले हे हेच कर्तव्य असायला हवे .  समाज कार्य करण्यास नक्कीच अर्थसहाय्य करावे . याच   मूळ कारणाने समाज आज तळागाळात आहे .राष्ट्रपिता  महात्मा फुले यांनी सांगितल्या प्रमाणे ' अर्था विना शूद्र खचले ' माझ्या  सारख्या अनेक धुरीण व्यक्तीने मोठया कसोसिने समाजात विविध पदावर राहून ,वेगवेगळ्या क्षत्रात कार्य केले आहे . जसे मी कर्णबधिर क्षत्रात कार्य केले करीत आहे . 

तेच कार्य मी आज एक खारीचा वाटा  उचलून कार्य करण्याचा प्रयत्न  करीत आहे ,आपण ही एक खारीचा वाटा होऊन समाज कार्य करावे हे  अपील आहे. आणि उपरोक्त गुगल UPI ID वर आपल्या इच्छे प्रमाणे मदत करावे हे माझे अपील आहे . 


                                ----------------प्रा. बा. र. शिंदे ,[विशेष कर्णबधिर शिक्षा ]


लेख पसंत आला तर  धम्मदान करा   .......... 

 


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दिव्यांगांना स्वयंपूर्ण बनविणे आवश्यक आहे. (दिव्यांग व्यक्ति कायदा - पीडब्ल्यूडी १९ ९५ - २००० (सुधारित )

 देशाला_आत्मनिर्भर_बनविताना_दिव्यांगांना_स्वयंपूर्ण_बनविणे_आवश्यक_आहे !





सध्या आपल्या देशात आत्मनिर्भरतेचे वारे जोरात वाहत आहे ,पण त्या वाऱ्याची दिशा किंवा मार्गदर्शन तत्व खूप खालच्या थराला गेले आहे . यात जातीचे खोटे दाखले ,आणि सध्या दिव्याग क्षत्रात ही घुसपेट झालेली पाहावयास मिळते आहे .

डोळस ,धांकट आणि सामान्य व सक्षम व्यक्ती चुकीच्या पद्धतीने दिव्यांग प्रमाणपत्र मिळवून सेवेत प्रवेश करीत असताना बघायला मिळत आहे . आज मितीला पूजा खेडकर या आयएएस अधिकारी पदावर निवड झालेलें प्रकरण चर्चेत आहे .

याबद्दल दिव्यांग व्यक्तींसाठी कार्य करणाऱ्या संस्थांना जागरूक राहावे लागेल, असे प्रतिपादन राज्यपाल रमेश बैस यांनी त्यांच्या व्यक्तवायत आपले मत व्यक्त केले आह .(२६ .७ .२०२४ ) या संदर्भात बनावट पद्धतीने दिव्यांग प्रमाणपत्र घेणारे व देणारे अशा दोघांवरही कायदेशीर कारवाई केली पाहिजे, असे राज्यपालांनी यावेळी सांगितले.

मी गेली ३५ वर्ष दिव्यांगांच्या सक्षमीकरणासाठी कार्य करत असताना असे अनेक अनुभव पाहावयास मिळाले आहत .

त्यांनी पुढे असे नमूद केले आहे की या खेटरत कार्य करणाऱ्या सर्व शासकीय आणि निम शशकिय संस्थानी आप आपली जबाबदारी पारदर्शक पार पाडावी .

भारतात एकूण लोकसंख्येच्या २.२१ टक्के लोक दिव्यांग आहेत. आगामी जनगणना प्रथमच डिजिटल माध्यमातून होणार आहे. त्यामुळे देशातील दिव्यांगांची निश्चित संख्या समजेल व त्यानुसार त्यांच्या कल्याणासाठी योजना आखण्यास मदत होईल.

तंत्रज्ञान व कृत्रिम प्रज्ञा यामुळे आगामी काळात दिव्यांगांचे जीवन अधिक सुकर होईल व दिव्यांगता ही अडचण ठरणार दूर होणार आहे .

दिव्यांग व्यक्ति कायदा - पीडब्ल्यूडी १९ ९५ - २००० (सुधारित ) या तत्व प्रणालित राहून सामान्य व्यक्तिनि दिव्यांग व्यक्तीस त्यांना आपल्या बरोबरीचे स्थान देवून सहकार्य एवढीच अपेक्षा !



अपील : मी प्रा. बी आर शिंदे ,(विशेष शिक्षा कर्णबधिर विभाग ,भारत सरकार ) सध्या सामाजिक कार्यासाठी लेखन स्वरूपात  स्वत:ला  समर्पित केले आहे . पूर्वी कर्णबधिर  सरकारी क्षेत्रात  कार्यरत होतो . तिथे पण मी ३१ वर्ष सेवा केली आहे . शेवटी आपले घर आपला  समाज ,हयाचे ऋण देणे असते , ते मी करीत आहे .आपले हे हेच कर्तव्य असायला हवे .  समाज कार्य करण्यास नक्कीच अर्थसहाय्य करावे . याच   मूळ कारणाने समाज आज तळागाळात आहे .राष्ट्रपिता  महात्मा फुले यांनी सांगितल्या प्रमाणे ' अर्था विना शूद्र खचले ' माझ्या  सारख्या अनेक धुरीण व्यक्तीने मोठया कसोसिने समाजात विविध पदावर राहून ,वेगवेगळ्या क्षत्रात कार्य केले आहे . जसे मी कर्णबधिर क्षत्रात कार्य केले करीत आहे . 

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प्रा. बा. र. शिंदे ,[विशेष कर्णबधिर शिक्षा ]

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Wednesday, July 24, 2024

सिंदूर की खोज

भारत में सिंदूर की खोज नागों ने की थी। इसीलिए सिंदूर के पर्यायवाची शब्दों में नागों की इस खोज का इतिहास छिपा हुआ है।

सिंदूर को नाग-संभूत कहा जाता है। मतलब कि सिंदूर को नागों ने उत्पन्न किया। इसे नागज भी कहा जाता है। मतलब कि सिंदूर को नागों ने जन्म दिया।

सिंदूर नागों के संग ऐसा घुलमिल गया कि इसे नागरेणु ( नागचूर्ण ) भी कहा जाता है।

सिंदूर का मूल रंग पीलापन लिए लाल होता है। इस रंग को नागरंगी कहते हैं। नाग यहां भी है। इसी से नारंगी बना है। ऐसा फल जिसका नाम रंग के आधार पर बाद में पड़ा।

नारंगी ( नागरंगी ) को ईरान के लोगों ने नारंग कहा और अरब के लोगों ने नारंज कहा। नारंज को स्पेन के लोगों ने नारंजा और पुर्तगाल के लोगों ने लारंजा कहा।

नारंजा ही अंग्रेजी का ऑरेंज ( Orange) है। ऑरेंज में नाग छिपा हुआ है। नागों का इतिहास सात समंदर पार ऐसे पहुंचा हुआ है कि हमें कानों - कान खबर नहीं है।



जानकारी अच्छी लागि तो धन राशि भेट दे । 



Saturday, July 20, 2024

डॉन ( १९७८ ) फिल्म

सदियोंका_नायक_मिलेनियम_स्टार_अमिताभ ! ( बुद्ध का ही नाम मिला है )





डॉन ( १९७८ )  फिल्म का यह गाना आज भी लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन की जिस गाने में बहुत अच्छी एक्टिंग और मुंबई शहर का बहुत अच्छा है । गांवों मे फिल्म आते आते ४/५ साल लग जाते । ८० से दशक मे हमरे गाँव डॉन पधारे , उस जमाने  में यह गाने वीडियो में सुना करते थे और विद्यार्थी जीवन में सुनकर आपस में डिस्कशन भी करते हैं आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए यह वास्तविक जीवन पर आधारित गाने एक भावी पीढ़ी की धरोहर रहेंगे । 

ना जाने कितनी बार देखा है डॉन! सभी गाणे किशोरदा का आवाज और अमितजी का अभिनय! ऐसी फिल्म फिर नही बन सकेंगी!!! बेशक ?

सच्चाई और संस्कृति से भरा बहुत ही अच्छा गीत जो मन को अत्यंत सुखद अनुभव करता है । उस समय आज जो हम मरीन ड्राइव देखते और वहा बैठ ते है उसिका काम चल रहा था तब इधर डॉन का यह गाना शूट किया गया था । 

किशोर कुमार जैसा कोई नहीं.. क्या गायकी है । अमिताभ की कलाकारी का कोई जवाब नही

ये ऐसे रोल किसके बस की बात नही हमने पूरे ५०  साल से देख रहें दिलसे अमित सर और किशोर दा को सलाम । 

किशोर दा के  गाने का अंदाज और अमिताभ जी का अभिनय बड़ा ही लाजवाब है । खासकर इस फिल्मे । मुक्कड़र का सिकंदर ,लवासरीक्ष ,शोले और शराबी तक किशोर दा ने जो एक सुर अमिताभ के लिए अलग से ढाल कर रक्खा था वह सदाबहार था । 

गीतकार  लालजी पांडे उफँ अंजान  साहब ने अमीताभ बच्चन के लिए एक से बढकर एक गीत लिखे,  और वह सभी गाने हिट ही हुये,  चाहे वह मुकद्दर का सिंकदर हो या शराबी , याराना हो या डाँन या फिर  गंगा की सौगंध हो या फिर  लावारिस  , सभी फिल्म के गाने बेहतर ही लिखे ।   किशोर दा का क्या कहना वह आवाज तो अमीताभ के लिए गहना थी  !

मुजे ईस गाने मे सिर्फ एक ही चीज अच्छी नहि लगी है और उसकी खासियत ये है की बच्चन साहब जो पान खाकर जमीन पर पिचकारी मरते है ? है क्या नही मजे की बात .. ...मुंबई के जमीन पर । 

सदी के महा नायक  एंग्री मैन  अमिताभ आज ८१  साल के हो गए है क्या कहना। पिता हरिवंश राय बच्चन जी से, अमिताभ जी को संस्कार मिले. माँ तेजी बच्चन से अध्यात्म मिला और जब दोनों का मिलन हुआ, तो देश को इनके जैसे नायक मिला . जब तक भारत देश का वजूद रहेगा, बच्चन जी तब तक भारतीय इतिहास में याद किये जाते रहेंगे. आप ऐसे ही  अपने चाहने वालो का मनोरंजन करते रहे । पीढ़ी दर पीढ़ी । 

                                                               .........................प्रा. बी आर शिंदे ,नेरुल नवी मुंबई ७०६





( लेख अच्छा लगे तो प्रोत्साहन राशि भेट स्वरूप दे .. ९७०२ १५८ ५६४ )


Tuesday, July 16, 2024

राजा ढाले: आक्रमक पँथर आणि 'आंबेडकरी


राजा ढाले: आक्रमक पँथर आणि 'आंबेडकरी चळवळीचा नि:स्पृह नेता' आज १६ जुलै २०१९ रोजी हरपला.



"एका दलित महिलेला विवस्त्र करून तिला अर्धा किमी धावायला लावलं. या गुन्ह्याची गुन्हेगाराला 50 रुपये दंडाची शिक्षा झाली. मात्र राष्ट्रध्वजाची अवमानना करणाऱ्याला 350 रुपये दंड झाला. म्हणजे आयाबहिणींच्या वस्त्राची किंमत राष्ट्रध्वजापेक्षा कमी आहे. मग त्याचं काय करायचं?" असा सवाल करून मोठा गहजब निर्माण करणारे दलित पँथरचे आक्रमक नेते राजा ढाले काळाच्या पडद्याआड गेले आहेत.

राजा ढालेंनी हा सवाल केला होता 'साधना' साप्ताहिकासाठी लिहिलेल्या एका लेखात. त्यावेळी साधनाचे संपादक असलेले डॉ. अनिल अवचट सांगतात, "साधना मासिकाला 25 वर्षं झाली होती. तेव्हा मासिकाच्या प्रगतीचा आलेख मांडायचा, हे काही बरोबर नाही. त्यामुळे तळागाळातल्या लोकांना विचारावं की प्रगती झाली किंवा नाही. त्यानिमित्ताने मी राजाला भेटलो. मला तेव्हा राजा म्हणाला की माझा लेख छापशील का? पण मी लेखातला शब्दन् शब्द छापणार, अशी ग्वाही दिली."

अवचट पुढे सांगतात, "त्याने जे लिहिलं त्यात मला फार काही गैर वाटलं नाही. तो उल्लेख राष्ट्रध्वजाविषयी होता म्हणून गहजब झाला. मग त्याचं (राष्ट्रध्वजाचं) काय करायचं, असा सवाल त्याने या लेखात केला आणि पुढे राष्ट्रध्वजासाठी एक अपशब्द वापरला. त्याचा मोठा गहजब झाला. मग तो एकदम प्रसिद्धीत आला."

'शिकलेले दलित सर्वसामान्य दलितांना मदत करत नाहीत'
दलित आणि संघामधली दरी आता कशी भरून निघणार?
तो लेख प्रकाशित झाला तेव्हा डॉ. अवचट तसंच एस. एम. जोशी यांच्यावर खटला दाखला झाला होता. कालांतराने हा खटला मागे घेतला गेला. पण या लेखामुळे दलित पँथर चर्चेत आली.

पण कुठल्याही परिस्थितीत, अगदी फाशी झाली तरी माफी मागणार नाही, अशी भूमिका राजा ढाले यांनी घेतली.

आक्रमक पँथर
दलित पँथर या लढाऊ आणि आक्रमक संघटनेच्या संस्थापकांपैकी एक होते राजा ढाले. नामदेव ढसाळ, राजा ढाले आणि इतर नेत्यांनी 1972 मध्ये दलित पँथरची स्थापना केली. पँथरच्या स्थापनेपासूनच राजा ढाले आपल्या आक्रमक भूमिकेसाठी चर्चेत होते. पुढे ढाले आणि ढसाळांमध्ये मतभेद झाले. ढसाळांच्या डाव्या विचारसरणीकडे झुकायला ढालेंनी जोरदार आक्षेप घेतला आणि त्यानंतर पँथर फुटली.

मग राजा ढालेंनी 'मास मूव्हमेंट' नावाची संघटना स्थापन केली.
ढाले यांच्याबरोबर आंबेडकरी चळवळीचा भाग असलेले दलित पँथरचे संस्थापक सदस्य ज. वि. पवार हे त्यांचं वर्णन आंबेडकरी चळवळीचा नि:स्पृह नेता आणि बाबासाहेबांच्या चळवळीचा प्रवक्ता, असं करतात.

बीबीसी मराठीशी बोलताना त्यांनी सांगितलं, "ते आणि मी 1966 पासून एकत्र होतो. एम.ए.च्या वेळी आम्ही एका बेंचवर बसायचो. तेव्हा ते लिटल मॅगझिनमध्ये लिहायचे. भालचंद्र नेमाडे वगैरे प्रभुतीही त्या काळात या मासिकात लिहायचे. त्यानंतर बाबुराव बागूल, जयंत पवार, नामदेव ढसाळ यांच्यासारखे साहित्यिक मित्र आम्ही एकत्र आलो. त्यावेळेपासून आंबेडकरी चळवळीत होते. मग ते दलित पँथरमध्ये सहभागी झाले."

"त्यांनी आयुष्यभर आंबेडकरी चळवळीचा विचार केला. त्यापासून ते तसुभरही ढळले नाही. मी आणि ढालेंनी कोणत्याही प्रकारच्या सरकारी योजनांचा लाभ घेतला नाही. कोणत्याही सरकारी समित्यांवर नेमणूक घेतली नाही. सरकारचं घरही घेतलं नाही. आमचे काही कार्यकर्ते सरकारला शरण गेले. आम्ही मात्र कायमच व्यवस्थेच्या विरोधात लढलो. आज तो निघून गेला. आता मी एकाकी झालो आहे," असं त्यांनी सांगितलं.

बंडखोरीची सुरुवात
काही वर्षांपूर्वी राजा ढालेंनी लोकप्रभा मासिकाला एक मुलाखत दिली होती. त्यात त्यांच्या बंडखोरीची सुरुवात कशी झाली, याबद्दल ते विस्ताराने सांगतात: "एकतर ती माझ्यात मुळातच असणार. मुळात बंडखोरी का होते तर समाजात साचलेपण आलं असतं. अपरिवर्तनीयता हेच ब्रह्मवाक्य होतं. तेव्हा बंडखोरीची सुरुवात होते. मी फुले आंबेडकरी चळवळीची वाट धरली होती.

"दलित साहित्य संघाशी माझा परिचय झाला. त्यात मॅट्रिक्युलेट झालो. आसपासच्या परिस्थितीचं भान यायला लागलं. साहित्यातलं साचलेपण डाचायला लागलं. चांगलं आणि वाईट साहित्य यांच्यातला फरक मला समजायला लागला. मी स्वत:ला मर्यादा घालून घेतल्या नव्हत्या. तसंच अनेक मोठ्या माणसाचा सहवास लहानपणापासून लाभला. त्यामुळे कदाचित मला मोठ्या माणसांची भीतीच संपली. त्यामुळे मी बंडखोर झालो."

'दलित पँथरचा महानायक हरपला'
"महामानव ,डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकरी चळवळीचा ज्येष्ठ मार्गदर्शक आज हरपला" धम्मलिपिकार राजा ढाले सर यांना विनम्र श्रद्धांजली .

संदर्भ : 16 जुलै 2019 बी बी सी



अपील : मी प्रा. बी.  आर.  शिंदे ,(विशेष शिक्षा कर्णबधिर विभाग ,भारत सरकार ) सध्या सामाजिक कार्यासाठी लेखन स्वरूपात  स्वताला समर्पित केले आहे . पूर्वी कर्णबधिर  सरकारी क्षेत्रात  कार्यरत होतो . तिथे पण मी ३१ वर्ष सेवा केली आहे . शेवटी आपले घर आपला  समाज ,हयाचे ऋण देणे असते , ते मी करीत आहे .आपले हे हेच कर्तव्य असायला हवे .  समाज कार्य करण्यास नक्कीच अर्थसहाय्य करावे .  हयाच  मूळ कारणाने समाज आज तळा गाळात आहे .राष्ट्रपिता  महात्मा फुले यांनी सांगितल्या प्रमाणे ' अर्था विना शूद्र खचले ' माझ्या  सारख्या अनेक धुरीण व्यक्तीने मोठया कसोसिने समाजात विविध पदावर राहून ,वेगवेगळ्या क्षत्रात कार्य केले आहे . 

    तेच कार्य मी आज एक खारीचा वाटा  उचलून कार्य करण्याचा  करीत आहे ,आपण ही एक खारीचा वाटा होऊन समाज कार्य करावे ही अपील आहे. आणि उपरोक्त गुगल लोगोवर आपल्या इच्छे प्रमाणे मदत करावे हे माझे अपील आहे . 

जय भीम ! नमो बुद्धाय ! 




प्रा. बा र शिंदे ,नेरूळ नवी मुंबई ७०६

विठामाई तमाशासम्राज्ञी

  विठामाई  ‘तमाशासम्राज्ञी




एकेकाळी तमाशा क्षेत्रात दुमदुमलेले नाव. 'विठा 'वयाच्या  १०  व्या वर्षापासून पायात घुंगरू बांधून कलाकार म्हणून प्रेक्षकांवर या जगावर  हुकुमत गाजवणारी लावणी नृत्यांगना. रंग सावळा, परंतु देखणा चेहरा, गोड गळा आणि त्याच्या वरचढ अभिनय अशा कोंदणात चमचमणा-या विठा च्या  जीवनचरित्राची भुरळ जनसामान्य रसिकांना पडणे तसे स्वाभाविकच होते . 

पुरुषांच्या त्या भयानक जगात वावरलेल्या विठा  जिवंतपणीच दंतकथा बनल्या. लफडेबाज, विकृत, व्यसनाधीन असे हिणवून निंदानालस्ती करणा-यांची पर्वा न करता मायबाप प्रेक्षकांनी विठामाई  ‘तमाशासम्राज्ञी’ ही पदवी बहाल केली.हे तिच्या कार्याची महती होय . हीच 'विठामाई ' ची ओळख आहे . 

विठाबाई भाऊ मांग नारायणगावकर यांचे  १५ जानेवारी २००२ रोजी सकाळी निधन झाले. त्या ६६ वर्ष ६  वर्षांच्या होत्या. विठाबाई नारायणगावकर या तमाशा कलावंत होत्या ज्या त्यांच्या गाण्या, नृत्य आणि नाटकांसाठी प्रसिद्ध होत्या. तिला महाराष्ट्रात सर्वजण ओळखत होते आणि प्रसारमाध्यमांनी तिला व्यापक कव्हरेज दिले होते.. 

    विठाबाई किती अष्टपैलू कलाकार होत्या हे माहित नसेल. तिच्या आयुष्याचे तपशील सर्वज्ञात आहेत आणि प्रत्येकाला माहित असलेल्या विशिष्ट घटना आहेत. पण जेव्हा विठाबाई तिच्या आयुष्याबद्दल बोलल्या तेव्हा त्या बोलल्या जणू ती पहिल्यांदाच तिच्या आयुष्याबद्दल बोलत होती. तिने अशा हावभावात आणि अशा भाषेत आठवणींना उजाळा दिला की, गालिचा अंथरण्याच्या सहजतेने तिचे संपूर्ण आयुष्य सर्व गुंतागुंतीसह तुमच्यासमोर उलगडले. आणि ती तिच्या आयुष्यातील अंतर पार करताना फक्त ऐकू शकत होती.

    विठाबाईंचा जन्म पंढरपूर येथे झाला म्हणून त्यांचे नाव विठा. तिचा जन्म एका तमाशा कुटुंबात झाला जिथे तिचे वडील आणि काका मिळून भाऊ-बापू मांग नारायणगावकर तमाशा गट म्हणून ओळखला जाणारा तमाशा मंडळ चालवतात. विठा म्हणाली की तिच्या वडिलांनी तिला शाळेत घातलं होतं पण तिला अभ्यासात रस नव्हता आणि ती सतत उभी राहून नाचत असल्यासारखी विविध पोझ घेत होती. तिला तिच्या शाळेतील कोणताही मजकूर समजू शकला नसला तरी तिला रंगमंचावर कसं सादर करायचं, कसं गाणं आणि कसं बोलायचं हे  कळत होतं. विठाबाई सतत स्वत:ला एक कलाकार, एक कलाकार म्हणून संबोधत, ज्यांनी बालपणापासूनच कला सादर केली. पण ती सोपी प्रक्रिया नव्हती. केव्हाही मुक्कामाला कायमस्वरूपी जागा नव्हती. ते सतत फिरत असत आणि अनेकदा त्यांनी ज्या गावात कार्यक्रम केला त्या गावांमध्ये विठाबाईंना टोपली घेऊन फिरायला आणि लोकांना अन्न व इतर गोष्टी मागण्यासाठी पाठवले जायचे. "माझे आई-वडील तुमच्यासाठी तमाशा करायला आले आहेत; आम्हाला काहीतरी द्या," मूल विठा भीक मागायची आणि लोक द्यायची. आणि तिच्या वडिलांच्या मृत्यूनंतर, हा कार्यक्रम चालला आहे हे पाहण्याची जबाबदारी विठाबाईंच्या लहान खांद्यावर आली, ज्यांचे काका तिला आधार देण्यासाठी होते. पण या काकांनी सुरुवातीला तिला तमाशामध्ये आणणे तिच्या वडिलांनी मान्य केले नव्हते. आता या दोघांना शो सुरू झाला  होता.

    तिने तिचा नवरा म्हणवलेल्या माणसाचा उल्लेख करताना विठाबाईंनी शिवीगाळ करणारे उत्तम शब्द वापरले. ती अजूनही किशोरवयातच होती, तेव्हा हा एक चिवट माणूस होता, तिने तिच्या नृत्यानंतर स्टेजवर उडी मारली, चाकू मारला आणि तिला म्हणाला, "तुला माझे व्हावे लागेल." तिच्या काकांनी होकार दिला आणि स्वतः तरुण विठा बहुधा सर्व नाटकाने भारावून गेली होती. पण या माणसासोबतचं तिचं आयुष्य हा हिंसाचाराचा प्रवास होता. तो मद्यपान करून तिला मारहाण करायचा आणि ती गरोदर असतानाही तिच्यासाठी कार्यक्रम बुक करायचा आणि पैसे काढून घेऊन त्याच्या इतर तीन बायकांना भेटायला जायचा. 

    ती नऊ महिन्यांची गरोदर असताना एकदा त्याने तिच्यासाठी शो बुक केला होता. ती स्टेजवर आली आणि तिने तिच्या नेहमीच्या सर्व कलाबाजीच्या हालचाली केल्या आणि प्रेक्षकांना आश्चर्य वाटले की ती काही भूत आहे की ती हे करू शकते. आणि मग तिला वेदना जाणवू लागल्या. तिने तिच्या दोन मोठ्या मुलींना सांगितले ज्यांनी तिच्यासोबत परफॉर्म करण्यास सुरुवात केली होती आणि ज्या सामान्यत: मध्यंतरादरम्यान गातात त्यांना दहा किंवा पंधरा मिनिटे अधिक गाण्यास सांगितले. ती तात्पुरत्या ग्रीन रूममध्ये जाऊन पडली. 

    आजूबाजूला कोणी डॉक्टर नव्हते, मिड वाईफ नव्हते आणि कोणीही नव्हते. ती एकटी होती आणि तिने एका मुलाला जन्म दिला. जवळच असलेल्या धारदार दगडाने नाळ कापून तिने त्याला कपड्यात गुंडाळले. तिने नऊ गजांची साडी घट्ट नेसली आणि स्टेजवर पुन्हा एकदा नाचताना दिसली. तिने कोणत्या बाळाला जन्म दिला हे जाणून घेण्यासाठी प्रेक्षकांनी टाळ्यांचा कडकडाट केला. जेव्हा तिने त्यांना मुलगा असल्याचे सांगितले तेव्हा त्यांनी स्टेजवर पैसे फेकण्यास सुरुवात केली. "पाणी नाही, डॉक्टर नाही, सुई नाही, गादी नाही, सुविधा नाही - अशा प्रकारे मी माझ्या सर्व मुलांची प्रसूती केली," विठाबाई कोरड्या आवाजात म्हणाल्या आणि अचानक अश्रू आले आणि त्या म्हणाल्या, "पण आता जेव्हा आई अभिनय करू शकत नाही, एक कलाकार म्हणून एक जीवन माझ्यासाठी काय करेल? आणि अश्रू वाहू देण्यासाठी ती पुन्हा भिंतीवर टेकली. परंतु तिच्यातील कलाकारानेच तिला जिवंत ठेवले होते, तिला अत्याचारी आणि हिंसक पतीसह सर्व प्रकारच्या अडथळ्यांवर मात करण्याचे बळ दिले होते.

    विठाबाईंनी तिच्या झटपट पुनरावृत्ती आणि कल्पक अप्रतिम संवादांनी आणि कंप पावणाऱ्या गायनाने तमाशा सादरीकरणात अनेक बदल घडवून आणले. तिने आपल्या अभिनय करणाऱ्या मुलींसोबत हिंदी गाणी आणि अनेक नाटके आणि संवाद सत्रे आणली, ज्यामुळे प्रेक्षकांना खिळवून ठेवले. ती नेहमीच तिच्या प्रेक्षकांच्या नियंत्रणात होती, ज्यांना तिने "सार्वजनिक" म्हणून संबोधले आणि त्यांच्याकडून कोणताही मूर्खपणा सोडला नाही. एका कार्यक्रमादरम्यान तिची मुलगी मंगला तक्रार करत आली की प्रेक्षक तिच्यावर दगडफेक करत आहेत. ‘पण ही पब्लिक आहे’, असे म्हणत विठाबाईंनी तिचे सांत्वन केले आणि मग तिने मंचावर येऊन श्रोत्यांना ‘व्याख्यान’ दिले. ती त्यांना म्हणाली की ते कलाकार आहेत आणि प्रेक्षकांनी त्यांच्याशी तसंच वागलं पाहिजे. तिने प्रेक्षकांना असेही सांगितले की ते वास्तविक मूर्खांनी भरलेले आहे. "तुम्ही आमच्यावर फेकलेले दगड आमच्या शरीराला स्पर्श करण्याइतके भाग्यवान आहेत हे तुम्हाला कळतही नाही; तुम्ही ते करू शकत नाही." श्रोते शांत झाले. श्रोत्यांपैकी कोणी तिच्या किंवा तिच्या मुलींकडे येण्याचे धाडस केले तर विठाबाईंनी त्याला कॉलर धरून सरळ केले.

एका गावातून दुस-या गावात प्रवास करणे आणि तात्पुरत्या टप्प्यात कार्यक्रम करणे हे विठाबाईंना प्रेक्षकांच्या स्वभावाचे असूनही सर्वात जास्त आवडायचे. थिएटरमध्ये नाचण्यापेक्षा तंबूत नाचणे अधिक रोमांचक असते, असे तिला वाटले. चित्रपटगृहात येणारे चांगले प्रेक्षक कोणत्याही गोष्टीने समाधानी असतील. ते शास्त्रीय नृत्य पाहतात आणि ते हे देखील पाहू शकतात. पण जे तंबूत येतात, तेच खरे ‘सार्वजनिक’ आहेत, ज्यांच्या कौतुकाचा तिला आनंद वाटत होता. तिला चित्रपटांबद्दलही असंच वाटत होतं. तिने मराठी आणि गुजराती चित्रपटांमध्ये नृत्य केले आहे पण चित्रपट माध्यमाने तिला अजिबात रोमांचित केले नाही असे तिने सांगितले. त्यांनी महिलांशी, विशेषत: नर्तकांशी ज्या प्रकारे वागणूक दिली ते तिला आवडले नाही आणि ती म्हणाली की साडी उघडपणे बांधली जावी अशी त्यांची इच्छा आहे. जेव्हा तिने चित्रपटांमध्ये काम केले तेव्हा विठाबाईंना काही गोष्टींवर नियंत्रण वाटत नव्हते आणि त्यामुळे त्या अस्वस्थ झाल्या होत्या.

    विविध सांस्कृतिक संस्थांच्या पुरस्कारांबद्दल बोलायचे नाही तर विठाबाईंना केंद्र आणि राज्य सरकारचे अनेक पुरस्कार मिळाले आहेत. द्राक्षे पिकवणारे नारायणगाव हे छोटेसे गाव विठाबाईंमुळेच नकाशावर ठळकपणे आले आहे. मान्यता म्हणून गावातील अधिकाऱ्यांनी तिला एक छोटासा भूखंड आणि एक छोटे घर दिले होते. तिचे नाव विठा, समोरच्या भिंतीवर ठळकपणे लिहिलेले आहे आणि ते नाव गावात जादूच्या कांडीसारखे काम करते. तुम्हाला फक्त नारायणगावात प्रवेश करून विठाबाईचे घर मागायचे आहे आणि अगदी लहान मूलही तुम्हाला तिच्या घरी घेऊन जाऊ शकते. विठाबाईंच्या मुलींचे स्वतःचे तमाशा गट आहेत आणि त्यांचेही तमाशाचा भाग असलेल्या पुरुषांशी करारबद्ध विवाह आहेत. त्यांची माणसे बसतात आणि त्यांच्यासाठी बुक शो करतात आणि ते सादर करतात. पण ही माणसे विठाबाईच्या तमाशा समूहाचा भाग आहेत आणि म्हणूनच विठाबाईंच्या मुलींना काय करायचे आहे या बाबतीत त्यांना अधिक स्वातंत्र्य आहे.

    विठाबाईशी बोलल्यानंतर, तिला तिच्या पुरुषाने अत्याचार केलेल्या कलाकाराच्या बळीच्या साच्यात बसवणे कठीण आहे, परंतु तिला तिच्या जीवनावर नियंत्रण ठेवणारी शक्ती असलेली स्त्री म्हणणे तितकेच कठीण आहे. विठाबाई काय होत्या, त्या एक कल्पक आणि हुशार तमाशा कलावंत होत्या, ज्या तमाशा कलावंताच्या जीवनातील खडतर मार्गावर, कधी मात करून, कधी या जीवनातील दबावांना बळी पडून चालायला शिकल्या. ,

  "ती एक उच्च कोटीची महान  कलाकार होती " . आणि अशा प्रकारे संपूर्ण नारायणगाव विठाबाईची आठवण ठेवेल - विठाबाई, कलाकार, कलाकार.

विठाबाई भाऊ मांग नारायणगावकर: मांग सगळ्या समाजाचे फेडणारी जात . जात मरत नाही ती जात आणि जात नाही ती बी जात . त्याचा न मारणाऱ्या समाजात या महान तमाशासम्राज्ञी जन्म झाला . 

एकेकाळी तमाशा क्षेत्रात दुमदुमलेले नाव. वयाच्या  १०  व्या वर्षापासून पायात घुंगरू बांधून कलाकार म्हणून प्रेक्षकांवर हुकुमत गाजवणारी लावणी नृत्यांगना. रंग सावळा, परंतु देखणा चेहरा, गोड गळा आणि त्याच्या वरचढ अभिनय अशा कोंदणात चमचमणा-या विठा च्या  जीवनचरित्राची भुरळ जनसामान्य रसिकांना पडणे तसे स्वाभाविकच होते . पुरुषांच्या त्या भयानक जगात वावरलेल्या विठा  जिवंतपणीच दंतकथा बनल्या. लफडेबाज, विकृत, व्यसनाधीन असे हिणवून निंदानालस्ती करणा-यांची पर्वा न करता मायबाप प्रेक्षकांनी विठामाई  ‘तमाशासम्राज्ञी’ ही पदवी बहाल केली.हे तिच्या कार्याची महती होय .






अपील : मी प्रा. बी आर शिंदे ,(विशेष शिक्षा कर्णबधिर विभाग ,भारत सरकार ) सध्या सामाजिक कार्यासाठी लेखन स्वरूपात  स्वताला समर्पित केले आहे . पूर्वी कर्णबधिर  सरकारी क्षेत्रात  कार्यरत होतो . तिथे पण मी ३१ वर्ष सेवा केली आहे . शेवटी आपले घर आपला  समाज ,हयाचे ऋण देणे असते , ते मी करीत आहे .आपले हे हेच कर्तव्य असायला हवे .  समाज कार्य करण्यास नक्कीच अर्थसहाय्य करावे .  हयाच  मूळ कारणाने समाज आज तळा गाळात आहे .राष्ट्रपिता  महात्मा फुले यांनी सांगितल्या प्रमाणे ' अर्था विना शूद्र खचले ' माझ्या  सारख्या अनेक धुरीण व्यक्तीने मोठया कसोसिने समाजात विविध पदावर राहून ,वेगवेगळ्या क्षत्रात कार्य केले आहे . 

    तेच कार्य मी आज एक खारीचा वाटा  उचलून कार्य करण्याचा  करीत आहे ,आपण ही एक खारीचा वाटा होऊन समाज कार्य करावे ही अपील आहे. आणि उपरोक्त गुगल लोगोवर आपल्या इच्छे प्रमाणे मदत करावे हे माझे अपील आहे . 

जय भीम ! नमो बुद्धाय ! जय लहुजी ! जय अण्णा !! 


प्रा. बा. र. शिंदे ,नेरूळ (प ),नवी मुंबई ७०६

balajirshinde.blogspost.com




Sunday, July 14, 2024

प्लॅटिक बकेट

 


माझ्या_एकच_दोष_आहे_की_मी_आवाज_जास्त_करतो . 

हे माझे दु:ख आहे की ,मी आवाज जास्त करतो. मला लातूर  गंज गोलाइत एका स्टील च्या भांडी दुकानातून  खरेदी करण्यात आले . कितीला खरेदी केले ते खरेदी करणारा  आणि विकणारा त्यास ठाऊक आहे .? वेगेले पैसे देऊन नाव पण कोरण्यात आले . 

" सौ. सोजार विश्वनाथ गवळी यांचे तर्फे ,घोलप यांना सप्रेम भेट २९ -५ -१९९४ . 

एका लग्नात माझी भेट वस्तु म्हणून वर्णी लागली ,मी बालाजी शिंदे ,हाळी ता . उदगीर जिल्हा लातूर यांच्या गावी आणि यांच्या घरी रविवार  २९ , मे १९९४  ( मे -१९९४  बैशाख - ज्येष्ठ २०५१ ) लग्नात झालो  दाखल झालो . 

लग्न झाले सर्व सोपसकसर संपले , लग्न जोडपे मुंबई येथे निघून गेले . कैक दिवस माझ्याकडे कोणी बघत नाही हे त्यांची आई नीला हिच्या लक्षात आले आणि तिने मला एका पांढऱ्या सूती कपड्यात बांधून मुंबई येते घेऊन आली .स्थळ होते वांद्रे सरकारी वसाहत ,मुंबई . त्यांच्या सूनबाई ने कश्याला घेऊन आलात हा शेरा मारला पण मागील ३० वर्ष मी इथे यांच्या घरात तग धरून कायम आहे . 

कपडे फटतील ,खराब होतील ,गंज लागेल म्हणून माझ्या वापर बाथरूम मध्ये कमी पण इतर साहित्य जसे धान्ये ठेवण्यास होवू लागला . पण कालांतराने इथे नवीन प्लॅस्टिक बकेट दाखल झाली मला बगल देण्यात येवू लागले . तरी मधून मधून माझी आठवण यांना होई ,आज पाऊस सुरू झाला आणि माझी वर्णी ओल्या झालेलेल्या छत्र्या ठेवण्यास होऊ लागली . बघा आहे की नाही माझा मानपाण मी आज घरच्या  दर्शनी भागात  आहे . छत्री राखण करतो .घरात पाणी होवू देत नाही . 

त्याच रूपयाच्या आठवणी आणि भेटवस्तु च्या  मोबदल्यात गेली ३० वर्ष मी सेवा करतो आहे . एक विनंती आहे ,माझ्या आवाज सहन करा ,मी बोलका सेवक आहे हो आपला . अशी माझी एक आत्मकथा आहे . जशा तुमच्या ही लग्नातल्या भेट वस्तूच्या कथा असतील ? तशी माझी ही एक लहान आत्मकथा !..

..............तो काळच तसा होता ,उट सूट आपले देखावे करण्याचा ,की मी किती मोठी वस्तु लग्नात भेट दिली आहे . लोक आपापल्या एपती प्रमाणे वस्तु स्वरूपात भेट वस्तु देत . दूर दूर गाववरून वस्तु खरेदी करून घेऊन यायचे . 

माझे आणि राधा चे जेंव्हा लग्न झाले तेंव्हा हे महाशय  माझ्या लग्नात घरी आले . खूप टिकाऊ वस्तु . अस्सल स्टील . बरीच भांडी कोंडी मिळाली . मी वांद्रे पूर्व मुंबई येथे राह्यला भाड्याच्या  खोलीत . मग यवढी भेट वस्तु कुठे घेऊन जाणार ? नगद स्वरूपात ,मिळालेल्या भेटी , रुपये ११ ,व ५१ त्या वरील किती मिळाले ते मला आज मितीला आठवत नाही ? ते मिळाले ली नगद रक्कम लगेच मंडपवाले,बॅन्ड बाजा ,स्वायपाकी ,देण्यात कामी आले . लग्न करून दादा रिकामे झाले . बरे झाले कर्ज काढून लग्न केले नाही ? नाहीतर ते आम्हा दोघाणा फेडावे लगेले असते ?

तब्बल तीस वर्ष झाली माझ्या लग्नाला ,पण हे बकेट माझ्या पिछा सोडत नाही . टाकावे से ही वाटत नाही , कारण भेट ही अमूल्य ठेवा आणि आठवण असते . याला हात लवताच आवाज करते म्हणून माझी बायको जास्त वापरत नाही . त्याचा आवाज ,वजन हे आजच्या प्लॅस्टिक युगात कालबाह्य झाले आहे . पण या तीस वर्षात कैक प्लॅस्टिक  बकेटस  घरात आली आणि गेली .  अंदाजे वर वर हिशोब केला तर एका  वर्षाकाटी एक branded बकेट धरून चला  एकूण १२०  बकेट आम्ही खरेदी केले असतील ( आज मितीला एकूण तीन  बकेट आणि एक टब अश्या चार वस्तु लागतात बाथरूम मध्ये ) 

तात्पर्य असे की अश्या दुर्मिळ वस्तु ज्या खूप टिकावू आणि आर्थिक बाबीने उपयोगी असतात . आजच्या पाचव्या जनरेशन नंतर आलेल्या #Anxious _Generation ला वापरा आणि फेकून द्या याचे भयानक वेड लागले आहे , याची जाणीव या जगाला नाही होत .? हे वैश्विक सत्य आहे .  मग ती वस्तु कोणती ही असो . 

प्रा. बा र शिंदे ,नेरूळ नवी मुंबई .


                                            लेख आवडला तर  धम्मदान करा   .......... 


अपील : मी प्रा. बी.  आर.  शिंदे ,(विशेष शिक्षा कर्णबधिर विभाग ,भारत सरकार ) सध्या सामाजिक कार्यासाठी लेखन स्वरूपात  स्वताला समर्पित केले आहे . पूर्वी कर्णबधिर  सरकारी क्षेत्रात  कार्यरत होतो . तिथे पण मी ३१ वर्ष सेवा केली आहे . शेवटी आपले घर आपला  समाज ,हयाचे ऋण देणे असते , ते मी करीत आहे .आपले हे हेच कर्तव्य असायला हवे .  समाज कार्य करण्यास नक्कीच अर्थसहाय्य करावे .  हयाच  मूळ कारणाने समाज आज तळा गाळात आहे .राष्ट्रपिता  महात्मा फुले यांनी सांगितल्या प्रमाणे ' अर्था विना शूद्र खचले ' माझ्या  सारख्या अनेक धुरीण व्यक्तीने मोठया कसोसिने समाजात विविध पदावर राहून ,वेगवेगळ्या क्षत्रात कार्य केले आहे . 

 

    तेच कार्य मी आज एक खारीचा वाटा  उचलून कार्य करण्याचा  करीत आहे ,आपण ही एक खारीचा वाटा होऊन समाज कार्य करावे ही अपील आहे. आणि उपरोक्त गुगल लोगोवर आपल्या इच्छे प्रमाणे मदत करावे हे माझे अपील आहे . 

 

जय भीम ! नमो बुद्धाय ! 





Monday, July 8, 2024

अत:दीप भंव: स्वतःचा प्रकाशमान व्हा !

अत:दीप भंव: 





अत्त दीपो भव” हे बौद्ध तत्वज्ञानाचे एक सूत्र आहे, ज्याचा अर्थ “स्वतःचा प्रकाशमान  व्हा ”. याचा अर्थ असा की एखाद्या व्यक्तीने आपल्या जीवनाचा उद्देश किंवा कोणताही नैतिक/अनैतिक निर्णय स्वतःच ठरवावा आणि इतर कोणाकडे पाहू नये. ज्ञानाच्या प्रकाशानेच आपण सत्याच्या मार्गावर पुढे जाऊ शकतो हा या विचाराचा अंतर्भाव आहे. त्याच वेळी, एखाद्याने स्वत: ला प्रबुद्ध केले पाहिजे परंतु इतरांसाठी दिवासारखे चमकत राहिले पाहिजे.

वरील शहाणपणाचे शब्द आपण अनेकदा वापरतो. पण याचा अर्थ काय याचा आपण कधी विचार केला आहे का? हे कोणत्या संदर्भात म्हटले आहे? आणि सर्वात महत्वाची गोष्ट म्हणजे आपण जे लिहितो ते कितपत योग्य आहे? काही लोक त्याला 'अत् दीप भव', कोणी 'अप्प दीपो भवथ' आणि कोणी दीप भव' वगैरे लिहितात. चला, याचा विचार करूया. वास्तविक, हे बुद्धवचन महापरिनिब्बन सुत्तमधून घेतले आहे जे बुद्धाचे शेवटचे शब्द म्हणून ति-पिटकमध्ये नोंदवले गेले आहे.


जेव्हा तथागत गंभीर आजाराने जागे झाले तेव्हा त्यांचा सहाय्यक आनंद म्हणतो - "भंते! परमेश्वराला विश्रांती घेताना दिसले. भन्ते! परमेश्वराला चांगले पाहिले. भन्ते! माझे शरीर शून्य झाले होते. मला दिशा सापडत नव्हती. परमेश्वराच्या आजारपणामुळे. भंते, मला काही समजत नव्हते की भिक्खूंकडून काही ऐकल्याशिवाय देव परिणिबाना प्राप्त होणार नाही.

"आनंद! भिक्खू संघाला माझ्याकडून काय हवे आहे? आनंदा! मी धम्माचा उपदेश ना आतून केला आहे ना बाहेर. आनंदा! तथागतांनी यात कोणतीही आचार्य-मुष्टी (गुप्त) ठेवली नाही. आनंदा! ज्याच्याशी असे घडेल की भिक्खू-संघ माझ्या अधिपत्याखाली आहे, त्या भिक्खू-संघाने आनंदाने काहीतरी बोलावे!

आनंद! तथागत भिक्खू संघाबद्दल काय म्हणतील? आनंद, मी म्हातारा झालोय. माझे वय ऐंशी वर्षे आहे. आनंद! जशी जुनी गाडी चपळाईने फिरते, तसाच आनंद! जणू तथागतांचे शरीर बांधून चालत आहे. म्हणून आनंद! अत्त-खोल, अत्त-सारण, अन-अन्य, स्वतःला शरण जा आणि दूर जा; धम्म-गहन, धम्म-सारण, आणि अनन्याला शरण जा.


आपण पाली शब्द वापरतो. पण आपल्याला पाली समजून घ्यायची आहे का? दुसऱ्या शब्दांत, आपल्याला पाली शिकायची आहे का? हे सर्वज्ञात आहे की 'बुद्ध-वंदना' दरम्यान आपण अनेक चुका करतो - उच्चारात तसेच पठणात. बुद्ध-वंदना या पुस्तकांमध्ये तुम्हाला अनेक चुका सापडतील. इथे आपण प्रूफ रीडिंग बद्दल बोलत नाही तर परंपरेने होत असलेल्या त्रुटींबद्दल बोलत आहोत. खरे तर आम्ही पाली वाचण्याचा प्रयत्नही केला नाही. पाली वाचली असती तर त्याचे व्याकरण समजले असते. व्याकरण समजले असते तर त्यासंबंधीच्या चुका समजल्या असत्या का? बुद्ध-वंदना या विषयावरील पुस्तके प्रकाशित करताना, ज्या पुस्तकाचा संदर्भ म्हणून आपण विचार करत आहोत, त्या पुस्तकातून कॉपी करताना कोणतीही चूक होणार नाही, याकडे आम्ही लक्ष देतो. इथे आपण कोणत्याही संदर्भग्रंथावर किंवा त्याच्या लेखकाकडे बोट दाखवत नाही. चुका आणि चुका जाणूनबुजून किंवा नकळत कोणाकडूनही होऊ शकतात.


हे स्पष्ट आहे की आपल्याला बुद्धाचे शब्द उद्धृत करायचे आहेत परंतु ते समजून घ्यायचे नाहीत! महापुरुषाने केलेल्या विधानात मोठा संदेश असतो. तुमच्या लक्षात आले असेल की ग्रंथांवर भाष्ये लिहिली जातात. ही लस काय आहे? वास्तविक, भाष्य म्हणजे त्या पुस्तकाचा अन्वयार्थ, त्या पुस्तकात असलेल्या महापुरुषांच्या शब्दांचे स्पष्टीकरण आणि विश्लेषण केले जाते. भाष्यकार अनेक उदाहरणे देऊन प्रत्येक वाक्य/कोट स्पष्ट करतो. बौद्ध ग्रंथात याला 'आठ कथा' असे नाव आहे.


बुद्ध भिक्खूंना म्हणाले - "तस्मातिहानंद, अट्टादीप विहारथ, अट्टासरण, अनन्यशरण; धम्म-दीप विहारथ धम्म-सारण, अनन्यशरण." म्हणून, आनंद, तुम्ही सर्वजण तुमच्या स्वतःच्या बेटावर राहता, म्हणजे स्वतःवर अवलंबून राहा, स्वतःचा आश्रय व्हा/स्वतःचा आश्रय व्हा, इतर कोणावरही अवलंबून राहू नका; धम्माच्या बेटावर प्रवास करा / फक्त धम्मावर अवलंबून रहा, धम्माचा आश्रय घ्या / धम्माला आपला आश्रय बनवा, इतरांचा आश्रय घेऊ नका / इतर कोणावरही अवलंबून राहू नका.


पाली प्राध्यापक संघसेन सिंह यांच्या म्हणण्यानुसार, महापरिनिब्बन सुत्तातील भगवान बुद्धांच्या या शेवटच्या संदेशाचा अर्थ - 'अत्तदीप विहारथ अत्त सरणा', काही विद्वान 'स्वतःचा दिवा बना' असे म्हणतात, तर संपूर्ण ति-पिटकामध्ये 'दीप' हा शब्द आहे. बेटाच्या अर्थाने 'पदिप' हा शब्द दिवा किंवा दिवा या अर्थाने वापरला जातो. धम्मपदात ‘पदीपा’ (गाथा क्र. १४६) आणि ‘दीपा’ (गाथा क्र. २५); दोन्ही शब्द वापरले आहेत. येथे ‘अट्टादीपो विहारथ अट्ट सरणा’ चा अर्थ असा आहे - आपले स्वतःचे बेट बनून त्याला भेट द्या. ‘आपला प्रकाश आपण’ ही संकल्पना संपूर्ण ति-पिटकामध्ये कुठेही नाही (‘प्रस्तावना’ धम्मपद: गाथा आणि कथा, पृ. १६).


पालीमध्ये हलंता किंवा विसर्ग नाही. जर आपल्याला पाली भाषेचे प्राथमिक ज्ञान असते तर आपण अशा चुका केल्या नसत्या. आपल्यापैकी काहींनी प्राथमिक किंवा माध्यमिक शाळेत संस्कृतचा अभ्यास केला असेल. आणि म्हणूनच आपण हलंत आणि विसर्ग हे जाणीवपूर्वक वापरतो. पण पाली? तर पाली ही आपली भाषा आहे. ती आपल्या मूल्यांची भाषा आहे. बुद्धाचे शब्द पाली भाषेत आहेत. आपण रोज जी बुद्ध-वंदना पाठ करतो ती पालीमध्ये आहे. संपूर्ण ति-पिटक पालीमध्ये आहे. पालीबद्दल आपण उदासीन का आहोत? आपण त्या बाजूला का पाठ फिरवत आहोत? आजकाल पालक मुलांना अनेक भाषा शिकण्यासाठी प्रोत्साहन देतात. त्यात पालीचा समावेश का नाही? जर आपण पाली भाषेचा अभ्यास केला आणि ती शाळा, महाविद्यालयांमध्ये शिकवली तर रोजगाराच्या संधीही खुल्या होतील. -अ ला उके



( लेख अच्छा लगे तो प्रोत्साहन राशि भेट स्वरूप दे ..दूरध्वनी : ९७०२ १५८ ५६४)

 

 


अपील : मी प्रा. बी.  आर.  शिंदे ,(विशेष शिक्षा कर्णबधिर विभाग ,भारत सरकार ) सध्या सामाजिक कार्यासाठी लेखन स्वरूपात  स्वताला समर्पित केले आहे . पूर्वी कर्णबधिर  सरकारी क्षेत्रात  कार्यरत होतो . तिथे पण मी ३१ वर्ष सेवा केली आहे . शेवटी आपले घर आपला  समाज ,हयाचे ऋण देणे असते , ते मी करीत आहे .आपले हे हेच कर्तव्य असायला हवे .  समाज कार्य करण्यास नक्कीच अर्थसहाय्य करावे .  हयाच  मूळ कारणाने समाज आज तळा गाळात आहे .राष्ट्रपिता  महात्मा फुले यांनी सांगितल्या प्रमाणे ' अर्था विना शूद्र खचले ' माझ्या  सारख्या अनेक धुरीण व्यक्तीने मोठया कसोसिने समाजात विविध पदावर राहून ,वेगवेगळ्या क्षत्रात कार्य केले आहे . 

 

    तेच कार्य मी आज एक खारीचा वाटा  उचलून कार्य करण्याचा  करीत आहे ,आपण ही एक खारीचा वाटा होऊन समाज कार्य करावे ही अपील आहे. आणि उपरोक्त गुगल लोगोवर आपल्या इच्छे प्रमाणे मदत करावे हे माझे अपील आहे . 

 

जय भीम ! नमो बुद्धाय ! 

 



Sunday, July 7, 2024

हिंदू कोड बिल


डॉ. भीमराव आंबेडकर यांनी ५ फेब्रुवारी १९५१ रोजी हिंदू कोड बिल संसदेत मांडले.


भारत देशात स्त्रियांचा आवाज नेहमीच दडपला गेला होता आणि हिंदू कोड बिल (हिंदू सहिंता विधेयक) त्यांच्या सशक्तीकरणासाठी एक पाऊल होते. भारतीय स्वातंत्र्यानंतर जवाहरलाल नेहरू यांनी पहिले कायदामंत्री डॉ.आंबेडकर यांना हिंदू वैयक्तिक कायद्यास एक समान नागरी कायद्याच्या दृष्टीने पहिले पाऊल म्हणून काम करण्याची जबाबदारी सोपविली. डॉ.आंबेडकरांनी स्वतःसह आपल्या अध्यक्ष म्हणून एक समिती स्थापन केली. ज्यात सदस्य के.के. भंडारकर, के.वाय. भांडारकर, जी.आर. राजगोपाल आणि बॉम्बे बारचे एस.व्ही. गुप्ते होते. १९४७ स्वातंत्र्य पूर्व काळात विधानसभेला सादर केलेल्या मसुद्यास समितीने केवळ किरकोळ बदल केले. पण विधेयक संविधान सभेसमोर ठेवण्या अगोदर हिंदू जनजागृतीच्या नेत्यांनी 'हिंदू धर्म धोक्यात आहे' अशी ओरड सुरु केली.


बाबासाहेबांनी १९४७ पासून सतत ४ वर्षे १ महिना २६ दिवस अविरत कष्ट करून हिंदू कोड बिल तयार केले. हिंदू कोड बिल संसदेत ५ फेब्रुवारी १९५१ रोजी संसदेत मांडले. परंतु अनेक हिंदू सदस्यांसह, ज्या काही जणांनी मंत्रिमंडळात पूर्वी मंजुरी दिली होती त्यांनीही आता या बिलाला विरोध केला. 


भारताचे राष्ट्रपती राजेंद्र प्रसाद, भारताचे गृहमंत्री आणि उपपंतप्रधान वल्लभभाई पटेल, उद्योगमंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी, हिंदू महासभेचे सदस्य असलेले मदन मोहन मालवीय आणि पट्टाभी सीतारामय्या यांनी विधेयकाला जोरदार विरोध केला. 


आंबेडकरांनी स्त्रियांना कायद्याने हक्क, दर्जा आणि प्रतिष्ठा प्राप्त करून देण्याचे स्वप्न हिंदू कोड बिलाच्या माध्यमातून पाहिले होते. हे बिल सात वेगवेगळ्या घटकांशी निगडित कायद्याचे कलमात रूपांतर करू पाहणारे होते. हे सात घटक खालीलप्रमाणे :


१) जी व्यक्ती मृत्युपत्र न करता मृत पावली असेल अशा मृत हिंदू व्यक्तीच्या (स्त्री आणि पुरुष दोघांच्याही) मालमत्तेच्या हक्कांबाबत.

२) मृताचा वारसदार ठरवण्याचा अधिकार

३) पोटगी

४) विवाह

५) घटस्फोट

६) दत्तकविधान

७) अज्ञानत्व व पालकत्व


हे सातही विषय स्त्रियांच्या दृष्टीने महत्त्वाचे आहेत. भारतीय संविधान सभेने जात, धर्म किंवा लिंगभेद करून मानवप्राण्यात कायदा भेदाभेद करणार नाही, न्यायाच्या तराजूत सर्वांना एकाच मापात तोलले जाईल, अशी घोषणा करून स्वातंत्र्य व समता या तत्त्वांचा अंगीकार केलेला होता. या पार्श्वभूमीवर हिंदू स्त्रियांना त्याचे न्याय्य हक्क देण्यास विरोध झाला.


या बिलातील घटस्फोट, द्विभार्या या कलमांना सनातनी मनोवृत्तीच्या विरोधकांनी प्रचंड विरोध केला. "सुधारणेच्या युगात स्त्रियांना समान हक्क द्यायला तुम्ही विरोध का करत आहात? असा सवाल डॉ.आंबेडकरांनी प्रतिगामी विरोधकांना २० सप्टेंबर १९५१ रोजी केला. 


हिंदू कोड बिल संमत व्हावे म्हणून बाबासाहेब एकटेच लढले. पण सत्र संपताना या बिलाची केवळ ४ कलमेच मंजूर झाली होती. कायद्याचे स्वरूप बदलून सती प्रतिबंधक कायदा व हिंदू विधवा पुनर्विवाह कायदा असे तुटपुंजे झाले, यास्तव दु:खीकष्टी होऊन राजीनामा देण्याचे ठरवले परतू नेहरूंनी त्यांना धीर धरा असा सल्ला दिला. डॉ.आंबेडकरांनी २७ सप्टेंबर १९५१ रोजी कायदेमंत्री पदाचा राजीनामा दिला आणि नेहरूंनी तो मंजूर केला. राजीनामा दिल्यानंतर त्यावर निवेदन करण्याची संधी उपसभापतींनी नाकारली. तत्कालीन नवशक्ती वृत्तपत्रात हिंदू कोड बिलाचा खून झाला अशी बातमी आली होती.


पुढे ज्या वारसा कायद्याला विरोध करण्यात आला होता तो बाजूला सारून प्रथम हिंदू विवाह कायदा हाती घेण्यात आला. हिंदू कोड बिलाचे चार वेगवेगळे भाग करून हे चार ही कायदे वेगवेगळ्या वेळी नेहरूंनी मंजूर करून घेतले. १९५५-५६ मध्ये मंजूर झालेले चार हिंदू कायदे म्हणजे,


* हिंदू विवाह कायदा

* हिंदू वारसा हक्क कायदा

* हिंदू अज्ञान व पालकत्व कायदा

* हिंदू दत्तक व पोटगी कायदा


हे कायदे मंजूर होणे म्हणजे कायद्याच्या इतिहासातली एक क्रांतिकारक घटना होती. या कायद्यांनी भारतीय स्त्रियांच्या जीवनात आमूलाग्र परिवर्तन घडण्यास सुरुवात झाली. या कायद्यांनी स्त्री-पुरुषांच्या दर्जात कायद्याने समानता प्रस्थापित केली. बाबासाहेबांनी भारताचे कायदेमंत्री पदाचा राजीनामा देताना हिंदू कोड बिलाविषयी असे म्हटले होते की, 


“समाजातल्या वर्गावर्गातली असमानता, स्त्री-पुरुष यांच्यातली असमानता तशीच अस्पर्शित राहू देऊन, आर्थिक समस्यांशी निगडित कायदे संमत करीत जाणे म्हणजे आमच्या संविधानाची चेष्टा करणे आणि शेणाच्या ढिगारावर राजमहाल बांधण्यासारखे होय.”


संदर्भ : विकिपीडिया

                प्रा बी आर शिंदे ,नेरूळ नवी मुंबई - ७०६ 

 अपील  

मी प्रा. बी.  आर.  शिंदे ,(विशेष शिक्षा कर्णबधिर विभाग ,भारत सरकार ) सध्या सामाजिक कार्यासाठी लेखन स्वरूपात  स्वताला समर्पित केले आहे . पूर्वी कर्णबधिर  सरकारी क्षेत्रात  कार्यरत होतो . तिथे पण मी ३१ वर्ष सेवा केली आहे . शेवटी आपले घर आपला  समाज ,हयाचे ऋण देणे असते , ते मी करीत आहे .आपले हे हेच कर्तव्य असायला हवे .  समाज कार्य करण्यास नक्कीच अर्थसहाय्य करावे .  हयाच  मूळ कारणाने समाज आज तळा गाळात आहे .राष्ट्रपिता  महात्मा फुले यांनी सांगितल्या प्रमाणे ' अर्था विना शूद्र खचले ' माझ्या  सारख्या अनेक धुरीण व्यक्तीने मोठया कसोसिने समाजात विविध पदावर राहून ,वेगवेगळ्या क्षत्रात कार्य केले आहे . 

 


                          ( लेख अच्छा लगे तो प्रोत्साहन राशि भेट स्वरूप दे ..दूरध्वनी : ९७०२ १५८ ५६४)

    तेच कार्य मी आज एक खारीचा वाटा  उचलून कार्य करण्याचा  करीत आहे ,आपण ही एक खारीचा वाटा होऊन समाज कार्य करावे ही अपील आहे. आणि उपरोक्त गुगल लोगोवर आपल्या इच्छे प्रमाणे मदत करावे हे माझे अपील आहे . 

 

जय भीम ! नमो बुद्धाय ! 

 



शिष्यवृत्तीसाठी गुणांची जाचक अट आणि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर




अनिल वैद्य ( माजी न्यायाधीश) मो. ९६५७७५८५५५      


     महाराष्ट्र शासनाच्या सामाजिक न्याय व विशेष सहाय्य विभागामार्फत प्रतिवर्षी अनुसूचित जाती नवबौद्ध प्रवर्गातील प्रदेशात विशेष अध्ययन करण्याकरिता प्रवेश घेतलेल्या विद्यार्थ्यांना राजर्षी शाहू महाराज परदेश शिष्यवृत्ती योजनेअंतर्गत शिष्यवृत्ती प्रदान करण्यात येते. शासनाने सन २०२४-२५ या शैक्षणिक वर्षासाठी या योजनेअंतर्गत शिष्यवृत्तीची जाहिरात नुकतीच प्रसिद्ध केली आहे. या जाहिरातीनुसार उक्त लाभ मिळण्यासाठी शासनाने आधीच्या (सन २०२३-२४) योजनेत बदल करून नवीन जाचक अटी अंतर्भूत केल्या आहेत. त्या पैकी 

     शिष्यवृत्ती मिळण्यासाठी पदवीमध्ये ७५% गुण असणे आवश्यक ठरविण्यात आले आहे. तसेच पीएचडी साठी पदव्युत्तर मध्ये ७५% असणे अनिवार्य करण्यात आले आहे.

     शिष्यवृत्तीचा लाभ एका कुटुंबातील एकच विद्यार्थी घेवू शकेल असे ठरविण्यात आले आहे.

     पदव्युत्तर साठी एकदा शिष्यवृत्ती मिळाली तर पूर्व पीएचडी करण्यासाठी शिष्यवृत्ती मिळणार नाही असा निर्णय घेण्यात आला आहे. याशिवाय इतरही जाचक अटी आहेत. शिष्यवृत्ती देण्यासाठी पदवी परीक्षेत ७५ टक्के गुणांची अट वाचून 

     डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांनी अशाच प्रकारच्या जाचक अटीसाठी सरकार विरुद्ध संसदेत १९५४ ला लढून जाचक अट रद्द करून घेतली होती. तशीच परिस्थिती आज निर्माण केली आहे. म्हणून हा लेखन प्रपंच.

     डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांना १९४१ मध्ये ब्रिटिश व्हाइसरॉयच्या हिंदुस्थान सरकारमध्ये संरक्षण सल्लागार समितीवर सभासद म्हणून नियुक्त केले होते.  त्यानंतर १९४२ ला व्हाइसरॉयच्या हिंदुस्थान सरकारच्या मंत्रिमंडळात कामगार व बांधकाम मंत्री म्हणून नियुक्त केले होते. त्यांच्याकडे शिक्षण खाते नव्हते, परंतु मागासवर्गीय विद्यार्थ्यांच्या शिक्षणाच्या समस्येकडे त्यांनी ब्रिटिशांचे लक्ष वेधले.  २९ ऑक्टोबर १९४२ रोजी गव्हर्नर जनरलला एक मेमोरॅंडम देवून देशात शिक्षण घेणाऱ्या अनुसूचित जातीच्या विद्यार्थ्यांसाठी दोन लाख रुपये व विदेशात शिक्षण घेणाऱ्यांना तीन लाख रुपये अनुदानाची मागणी केली.

ब्रिटीशांनी डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांची मागणी पूर्ण केली व अनुसूचित जातीच्या विद्यार्थ्यांसाठी तीन लाख रुपयांची शिष्यवृत्ती मंजूर केली.‌ विदेशात जाणाऱ्या विद्यार्थ्यांनाही शिष्यवृत्ती मंजूर केली.  त्यामुळे त्यावेळी अनुसूचित जातीचे १६ विद्यार्थी विदेशात उच्च शिक्षणासाठी गेले होते.  पुढे शिष्यवृत्तीच्या रकमेत दरवर्षी वाढ होत गेली.

      इ. स. १९४६ मध्ये ब्रिटिश सरकारने स्वातंत्र्य देण्याच्या हेतूने संविधान सभेची निवडणूक घेतली.‌  निवडून आलेल्या सदस्यांचे हंगामी सरकार नियुक्त केले.  त्या सरकारने अनुसूचित जातीच्या विद्यार्थ्यांना विदेशात पाठविण्याचे बंद केले.  याचा डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांनी तीव्र निषेध व्यक्त केला आणि संधी मिळताच दि. ६ सप्टेंबर १९५४ रोजी राज्यसभेत हा मुद्दा उपस्थित केला.  'पवित्र कार्याला अपवित्र करण्यात' शिक्षणमंत्री राजगोपालाचारी यांची हातोटी असल्याची, टीका करून सरकारचा खरपूस समाचार घेतला.  पुढे ते म्हणाले, प्रत्येक सचिवाचा मुलगा आणि मुलगी केंब्रिज किंवा ऑक्सफर्डमध्ये सापडू शकतो.  त्यांच्या मुलांच्या राहण्याची व्यवस्था करण्यासाठी त्यांनी दोनदा किंवा तीनदा परदेशी यात्रा केलेली आहे.  कारण त्यांच्याकडे विपुल साधनसामग्री आहे.  मागासवर्गीय मुलाला प्राथमिक शिक्षणसुद्धा मिळू शकत नाही.  दोन वर्गातील या प्रकारचे व्यवहार शेकडो वर्षांपासून चालू आहेत.  हा असह्य व्यवहार असून अनंत काळापर्यंत तो आम्ही चालू देणार नाही.  भाषण सुरू असतांनाच सरकारच्या वतीने संसद सदस्य डॉ. काटजू मध्येच म्हणाले की, गेल्या वर्षापासून ही योजना पुन्हा सुरू केली आहे.  त्यावर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांनी खडसावून विचारले की, इतके वर्षे का बंद केली होती?  त्यावर डॉ. काटजू निरुत्तर झाले व मला माहित नाही, असे त्यांनी उत्तर दिले. काही उत्तरच नव्हते त्यांच्याकडे !

      आजची एस.एस.सी. म्हणजे त्यावेळची ७वी मॅट्रीक.  मॅट्रीक पास विद्यार्थ्याला पुढील शिक्षणासाठी शिष्यवृत्तीची योजना डॉ. बाबासाहेबांच्या महत् प्रयत्नाने सुरु झाली.  परंतु १९४५ ला व्हाइसरॉयचे ब्रिटिश सरकार संपुष्टात आले व १९४६ ला ब्रिटिशांनी भारतीयांचे हिंदुस्थान सरकार निवडणुकीद्वारे निर्माण केले.   सरकारमधल्या या आरक्षण विरोधकांना मागासवर्गीय विद्यार्थ्यांना शिष्यवृत्ती मिळणे हे बघविले नाही.  त्यांनी दुष्टपणा केला व शिष्यवृत्तीसाठी ५०% गुणांची अट निर्माण केली.  त्या काळात पास होण्यास जेमतेम ३३ टक्के गुण मिळविणेसुद्धा फार कठीण होते.  परिस्थिती अशी होती की, अस्पृश्य समाजातून फक्त एकटेच डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मॅट्रीक झाले होते.   अशा परिस्थितीत ५० टक्के गुणांची अट घालणे म्हणजे संपूर्ण समाजाला शिष्यवृत्ती नाकारणे होते.  कारण जातीयतेच्या काळात अस्पृश्य विद्यार्थ्याला ५० मार्क्स् देण्याची परीक्षकातही दानत नव्हती.  विरोधकांना येनकेन प्रकारे शिष्यवृत्ती नाकारायची होती.  ही बाब डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांच्या लक्षात येताच त्यांनी हा मुद्दा राज्यसभेत १९५४ ला उपस्थित केला व सरकारवर घणाघाती टीका केली.  सर्व सभागृहांचे लक्ष याकडे वेधले.  ते म्हणाले, अनुसूचित जातीची मुले ज्या परिस्थितीत राहतात ती तुम्ही विचारात घेतली पाहिजे.  त्यांच्या आईवडिलांजवळ त्यांच्या अभ्यासासाठी वेगळी खोलीही नसते.  रात्री अभ्यासासाठी दिवाही नसतो.  तो गर्दीमध्ये राहत त्याने परीक्षेत शेकडा ५० गुण मिळवावे, अशी अपेक्षा तरी तुम्ही कशी करता.... तो एक मूर्खपणा आहे. महामूर्खपणा आहे.  सर्व विद्यापीठांनी मान्य केलेली आणि सरकारी नोकरीसाठी तुम्हालाही मान्य असलेली सर्वसामान्य पात्रता म्हणजे ३३ टक्के मार्क्स. ते तुम्ही काही काळासाठी मान्य करावयास पाहिजे.  त्यांच्या शिष्यवृत्तीच्या कार्यात मुद्दाम अडथळा निर्माण करण्याचा हेतू असल्याशिवाय नुसता पास असलेला मुलगा जर सरकारी नोकरीसाठी पात्र असतो तर त्याच्या पुढील शिक्षणासाठी शिष्यवृत्तीकरिता तो पात्र का ठरू नये ?

      यानंतर सरकारने ५०% गुणांची अट शिथील केली व तेव्हापासून तर आजही जेमतेम गुण एस.एस.सी. झालेल्या विद्यार्थ्याला पुढील शिक्षणासाठी शिष्यवृत्ती मिळते.  डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर नसते तर ५० टक्क्यांच्या अटीमुळे लाखो मागासवर्गीय विद्यार्थी शिष्यवृत्तीपासून वंचित झाले असते व आज दिसणारे कर्मचारी व अधिकारीही नसते.

      या उदाहरणातून महाराष्ट्र सरकारने धडा घ्यावा व ७५ टक्क्याची अट रद्द करावी.  तसेच एका कुटुंबात एकाच विद्यार्थ्याला शिष्यवृत्ती एकचदा पदव्युत्तर अभ्यासक्रम शिकण्यासाठी शिष्यवृत्ती देण्याची अट.  हे संविधानिक आहे काय?  हे सरकारच्या कोणत्या मनोवृत्तीचे लक्षण आहे?  छत्रपती सयाजीराव गायकवाडांनी उदारपणे शिष्यवृत्ती दिल्या आणि त्यांचा वारसा सांगणारे अशा प्रकारे वागतात?

      शिष्यवृत्ती हा प्रत्येकाचा स्वतंत्र हक्क आहे.  घरात एका भावाला किंवा बहिणीला आधी मिळाली म्हणून दुसऱ्याला गुणवत्तेच्या आधारे शिष्यवृत्ती नाकारणे व्यक्तिस्वातंत्र्याच्या विसंगत नाही काय?  तसेच एकदा पदव्युत्तर अभ्यासक्रमासाठी शिष्यवृत्ती घेतली तर पीएचडीला दिली जाणार नाही हा नियम म्हणजे विद्यार्थ्याच्या पुढील वाटचालीस किंवा विकासास अडथळा नव्हे काय?

      जेमतेम गुणांनी उत्तीर्ण विद्यार्थी सुद्धा पुढे चांगली कामगिरी करु शकतो.  डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांना सयाजीराव गायकवाडांनी ७५ टक्क्याची अट लावली असती तर... ते अमेरिकेत जाऊ शकले असते काय?  आणि गेले नसते तर या देशाला इतके उत्कृष्ट संविधान कुणी दिले असते?

      सरकार कोट्यवधी रुपये उद्योजकांचे माफ करू शकते आणि विद्यार्थ्यांना शिष्यवृत्ती देण्यासाठी हात आखूड करीत आहे.  बरे! सरकारी टॅक्स मागासवर्गीय लोक सुद्धा देतात.

      उच्चवर्णीय लोकांच्या टॅक्सच्या पैशातून मागासवर्गीय शिकतात अशा भ्रमात कुणी राहू नये.

      शिक्षण घेण्यापासून वंचित ठेवण्याची जुनी सवय दांभिक लोकांनी सोडून द्यावी.  १९२६-२७ ला अस्पृश्यांना सरकारी शाळेत प्रवेश देण्याचा ब्रिटिश काळात आदेश असताना ठाणे व रत्नागिरी येथे अस्पृश्य विद्यार्थ्यांना प्रवेश नाकारला होता.  अशा जुन्या सवयी सोडून द्याव्यात.  देशाची प्रगती सर्वांच्या प्रगतीमध्ये आहे.  हे सत्ताधारी वर्गाने लक्षात घ्यावे.                                                      ▪️▪️▪️.                                                   


(संदर्भ : दैनिक "वृत्तरत्न सम्राट" रविवार, दि. १६ जून २०२४)

नवीन कलमाने दाखल करावयाची गुन्हे ठाणे अंमलदार साठी उपयुक्त

 


नवीन कलमाने दाखल करावयाची गुन्हे ठाणे अंमलदार साठी उपयुक्त 


01) NC अदखलपात्र गुन्हा 

323, 504, 506, 34.

नवीन कलम 

115(2), 352, 351(2)(3),  3(5) प्रमाणे


02) साधी दुखापत

324, 504, 506, 34

नवीन कलम

118(2) 352, 351(2)(3), 3(5) प्रमाणे,


03) गंभीर दुखापत

326, 324, 504, 506, 34

नवीन कलम

118(1), 118(2), 352, 351(2)(3),  3(5) प्रमाणे,


 04) खुनाचा प्रयत्न

307, 324, 504, 506, 34.

नवीन कलम

109, 118(2), 352, 351(2)(3),  3(5) प्रमाणे,


 05) खून करणे/पुरावा नष्ट करणे 

302, 34, 120(B) 

नवीन कलम

103(1), 3(5), 61(1) प्रमाणे,

 

06) अपघात करणे 

304(A), 279, 337, 338, 427 MV ACT 134A,134B,184.

नवीन कलम

106(1)(2), 281, 125(A), 125(2) 324(4)(5), MV ACT 134(A)(B),184.


07) स्त्रीचा विनयभंग

354, 354(A), 354(B), 354(C), 354(D), 509. 

नवीन कलम

74, 75, 76, 77, 78 79. प्रमाणे,


08) स्त्रीला क्रूर वागणूक देणे 

498(A), 494,  323, 405, 506, 34.

नवीन कलम 

85, 86, 82, 115(2), 352, 351(2)(3), 3(5) प्रमाणे.


09) बलात्काराची कलम

363, 376, 376(2)(N)  नवीन कलम

137(2), 64, 64(2)(N)

 

10) चोरीची व दरोडा कलमे

379, 380, 454, 457 392, 394, 395, 397.

नवीन कलम

303(2), 305(A), 331(3), 331(4),

309(4), 399(6), 310(2), 311. प्रमाणे 


👉 The following "IPC Sections" have been converted to "BNS Sections"


01)302 IPC = 103 BNS


02) 304(A) IPC = 106 BNS


03) 304(B) IPC = 80 BNS


04) 306 IPC = 108 BNS


05) 307 IPC = 109 BNS


06) 309 IPC = 226 BNS

  

07) 286 IPC = 287 BNS


08) 294 IPC = 296 BNS


09) 509 IPC = 79 BNS


10) 323 IPC = 115 BNS


11) R/W 34 IPC = 3(5) BNS


12) R/W 149 = R/W 190 BNS


13) 324 IPC = 118(1) BNS


14) 325 IPC = 118(2) BNS


15) 326 IPC = 118(3) BNS


16) 353 IPC = 121 BNS


17) 336 IPC = 125 BNS


18) 337 IPC = 125 BNS(A)


19) 338 IPC = 125 BNS(B)


20) 341 IPC = 126 BNS


21) 353 IPC = 132 BNS


22) 354 IPC = 74 BNS


23) 354(A) IPC = 75 BNS


24) 354(B) IPC = 76 BNS


25) 354(C) IPC = 77 BNS


26) 354(D) IPC = 78 BNS


27) 363 IPC = 139 BNS


28) 376 IPC = 64 BNS


29) 284 IPC = 286 BNS


30) 286 IPC = 288 BNS

(Fine - 5000/-)


31) 290 IPC = 292 BNS    

(Fine - Rs 1000/-)


32) 294 IPC = 296 BNS


33) 447 IPC = 329 (3) BNS


34) 448 IPC = 329 (4) BNS


35) 392 IPC = 309 BNS


36) 411 IPC = 317 BNS


37) 420 IPC = 318 BNS


38) 382 IPC = 304 BNS


39) 442 IPC = 330 BNS


40) 445 IPC = 330 BNS


41) 447 IPC = 330 BNS


42) 448 IPC = 331 BNS

  

43) 494 IPC = 82 BNS


44) 498(A) IPC = 85 BNS


45) 506 IPC = 351 BNS

 

46) 509 IPC = 79 BNS

       

(Petty Basic Offences)

  

47) 9(I), 9(II) = 112 BNS

  

The above Sections of IPC for BNS will be applicable from 01.07.2024.

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भरहुत स्तूपाची काही महत्त्वाची वैशिष्ट्ये: भरहुत स्तूप हा भारतातील प्राचीन बौद्ध स्तूपांपैकी एक महत्त्वपूर्ण स्तूप आहे. तो मध्य प्रदेश राज्य...