तृष्णा ही जटाय !
मानव मुक्ति किस तरह हो इस माया जाल से और कौन है जो इस जटा से
मुक्ति पते ? जो इसपर विजय पा सके ?
जो चार अरीय सत्य ,पंचशील,अष्टांगिक
मार्ग और दश पारमी को जान सके और ध्यान कर पालन कर सके वही इस जटा से मुक्ति पा
सके ?
"अन्तो जटा बहि जटा, जटाय जटिता पजा।"
एक समय भगवान
श्रावस्ती में विहार करते थे। उस समय रात में किसी देवपुत्र ने भगवान के पास आकर
अपना संदेह मिटाने के लिए पुछा-
"अन्तो जटा बहि जटा, जटाय जटिता पजा।
तं तं गोतम!पुच्छामि, को इमं विजटये जटं?"
भीतर जटा है,बहार जटा है,जटा से
प्राणी जकड़ी हुई है, इसलिए हे गौतम! आप से पुछता हूँ कि कौन
इस जटा को काट सकता है?
भगवान ने उसका उत्तर
देते हुए कहा-
"सीले पतिट्ठाय नरो सपञ्ञो, चित्तं पञ्ञञ्च भावयं ।
आतापी निपको भिक्खु,
सो इमं विजटये जटं।।"
जो नर प्रज्ञावान है,वीर्यवान है, पण्डित
है, भिक्षु है,वह शील पर प्रतिष्ठित हो,
समाधि और प्रज्ञा की भावना करते हुए इस जटा को काट सकता है।
जटा का तात्पर्य है
तृष्णा। क्योंकि तृष्णा जाल फैलानेवाली है। बार बार उत्पन्न होने वाली तृष्णा बाँस
के झाड आदि के शाखा-जाल कहलाने वाली जटा के समान होने से जटा है। तृष्णा अपनी और
पराई चीजों में, अपने और
दूसरे के शरीर में, भीतर और बाहरी आयतनों में उत्पन्न होने
से भीतर जटा है, बहार जटा है। उसके ऐसे उत्पन्न होने से
प्राणी जटा से जकड़ी हुई है। इसलिए उसने पुछा कि इस जटा को कौन काट सकता है।
भगवान ने उत्तर में कहा-
जो शील, समाधि और प्रज्ञा
में प्रतिष्ठित वीर्यवान पण्डित व्यक्ति है वह तृष्णा रूपी जटा को काट सकता है।
"अयं एकायनो मग्गो।"
संसार के सभी दु:खों
से मुक्ति पाने के लिए यही अद्वितीय मार्ग है। शास्ता बुद्ध ने तृष्णा का समुच्छेद
करने के लिए शील समाधि और प्रज्ञा का आठ अंगों वाले धम्म का उपदेश दिया है।
"ये च धम्मा अतीता च,ये च धम्मा अनागता।
पच्चुपन्ना च ये
धम्मा,अहं वंदामि सब्बदा।।"
नमो तस्स भगवतो
अरहतो सम्मा सम्म बुद्धस्स !
प्रा.बालाजी शिंदे ,नेरूळ -७०६
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